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नौवां विश्व हिंदी सम्मेलन- कुछ नए सवालों की उपज

janpath
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नौवां विश्व हिंदी सम्मेलन कई रूपों में याद किया जा रहा है। जिन्हें इस सम्मेलन में भाग लेने का अवसर मिला, वे इसे एक सुव्यवस्थित-सुनियोजित आयोजन बता रहे हैं । जो इस आयोजन में शामिल नहीं हो सके, उनकी ओर से असंतोष के स्वर भी सामने आ रहे हैं। कहा जा रहा है कि विदेश मंत्रालय के इस आयोजन से साहित्यकारों को ही दूर रखा गया । यह और बात है कि 22 से 24 सितंबर तक दक्षिण भारत की आर्थिक राजधानी कहे जानेवाले जोहांसबर्ग शहर के निकट हुए इस सम्मेलन के सभी नौ सत्रों की कमान हिंदी के साहित्यकारों-लेखकों के ही हाथ में रही ।
सच कहा जाए तो नौवां विश्व हिंदी सम्मेलन पूरी तरह गांधी और उनकी स्मृतियों को समर्पित रहा । आयोजकों ने जोहांसबर्ग का उपनगर माने जानेवाले सैंडटन सिटी स्थित सैंडटन कन्वेंशन सेंटर को इस सम्मेलन के तीन दिनों के लिए गांधी ग्राम नाम दे दिया था । इस चार मंजिले कन्वेंशन सेंटर की दूसरी खूबी यह कि ये ऐतिहासिक नेलशन मंडेला चौक के ठीक सामने स्थित है । समारोह के दौरान गांधी की स्मृतियों को और ताजा करने के लिए विभिन्न सत्रों के लिए बनाए कक्षों को अहिंसा कक्ष, शांति कक्ष, नीति कक्ष और न्याय कक्ष जैसे नाम दिए गए थे। दक्षिण अफ्रीका में ही इस सम्मेलन का इस बार आयोजन इसलिए भी अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करता नजर आया, क्योंकि दक्षिण अफ्रीका में इस वर्ष को भारतवंशियों के वहां प्रवेश के 150वें वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है । जबकि आज दक्षिण अफ्रीका में भारतवंशियों की संख्या 15 लाख के आसपास है। वहां की केंद्रीय सरकार में चार मंत्री भारतवंशी हैं । इन्हीं में से एक, दक्षिण अफ्रीका के वित्तमंत्री प्रवीण गोवर्धन ने नौवें विश्व हिंदी सम्मेलन का उद्घाटन भी किया ।
यूं तो सम्मेलन के दौरान हिंदी से जुड़े कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर चर्चा हुई । महात्मा गांधी की भाषा दृष्टि और वर्तमान का संदर्भ, अफ्रीका में हिंदी शिक्षण – युवाओं का योगदान, सूचना प्रोद्योगिकी- देवनागरी लिपि और हिंदी का सामर्थ्य, हिंदी के विकास में विदेशी/प्रवासी लेखकों की भूमिका, लोकतंत्र और मीडिया की भाषा के रूप में हिंदी, ज्ञान-विज्ञान और रोजगार की भाषा के रूप में हिंदी, विदेश में भारत-भारतीय ग्रंथों की भूमिका, हिंदी-फिल्म, रंगमंच और मंच की भाषा एवं हिंदी के प्रचार-प्रसार में अनुवाद की भूमिका जैसे विषयों पर नौ सत्रों में बड़े विस्तार से मूर्धन्य विद्वानों ने चर्चा की । प्रत्येक सत्र की अध्यक्षता किसी ने किसी वरिष्ठ साहित्यकार ने की तो विशिष्ट अतिथि के रूप में साहित्यिक रुचि का कोई न कोई सांसद भी मौजूद था ।
लेकिन सम्मेलन शुरू होने के पहले दिन से ही भारत से गए मीडिया का पूरा ध्यान हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने पर ही केंद्रित रहा । मीडिया ने इस संबंध ने विदेश राज्यमंत्री प्रनीत कौर सहित विदेश मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों को बारबार घेरने की कोशिश की । नतीजा यह रहा कि मूलतः इस विषय पर कोई भी सत्र न रखे जाने के बावजूद समापन सत्र के समय लिए गए संकल्पों में इस विषय को शामिल करते हुए आयोजन समिति के सदस्य सांसद सत्यव्रत चतुर्वेदी को घोषित करना पड़ा कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्रसंघ में आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए समयबद्ध कार्रवाई सुनिश्चित की जानी चाहिए । गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिंदी को सातवीं भाषा के रूप में मान्यता दिलाने का संकल्प अब से करीब 36 साल पहले नागपुर में हुए प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन में लिया गया था । उसके बाद हुए दूसरे विश्व हिंदी सम्मेलन में भी यह संकल्प दोहराया गया । लेकिन उसके बाद सम्मेलन के आयोजन की जिम्मेदारी निभानेवाले विदेश मंत्रालय ने इस महत्त्वपूर्ण विषय को ठंडे बस्ते में डाल दिया है । डाल भी क्यों न दिया जाए । हम दुनिया की संसद माने जानेवाले संयुक्त राष्ट्रसंघ में तो हिंदी को मान्यता दिलाने की बात कर रहे हैं । लेकिन अपने देश की संसद में ही आज तक हिंदी को मान्यता नहीं दिला सके हैं। सम्मेलन में भाग लेने गए प्रवासी संसार पत्रिका के संपादक राकेश पांडेय के अनुसार आजादी के 65 साल बीतने के बावजूद आजतक लोकसभा में राजभाषा समिति का गठन नहीं हो सका है। हिंदी प्रेमी नेता स्वर्गीय जगजीवनराम की पुत्री लोकसभा अध्यक्ष मीराकुमार से इस संबंध में काफी उम्मीद की जा रही थी। लेकिन लोकसभा पर हावी नौकरशाही के सामने वह भी मजबूर दिखने लगी हैं। जबकि भैरोसिंह शेखावत के सभापति रहते राज्यसभा में राजभाषा समिति का गठन हो चुका है।
विश्व हिंदी सम्मेलन के ही बहाने हिंदी से जुड़े कुछ और विषयों की ओर भी ध्यान आकर्षित करना समीचीन होगा । इनमें एक महत्त्वपूर्ण विषय है – विश्व हिंदी सम्मेलन के आयोजन स्थल एवं समय की समस्या । अब तक हुए नौ विश्व हिंदी सम्मेलनों में से दो भारत में, दो मॉरीशस में, और एक – एक सम्मेलन ट्रिनिडाड एवं टोबैगो, सूरीनाम, अमरीका, ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीका में हो चुके हैं। नौवें सम्मेलन के समापन सत्र में ही दसवां सम्मेलन भारत में करने का प्रस्ताव सामने आ चुका है। यह एक अच्छी बात है कि नौवें विश्व हिंदी सम्मेलन में करीब 25 देशों से आए प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया । जबकि इससे ज्यादा देशों में हिंदी में लिखने-पढ़ने और बोलनेवाले लोगों की बड़ी संख्या रह रही है। लेकिन विदेश मंत्रालय को इस बात पर विचार क्यों नहीं करना चाहिए कि इस आयोजन के लिए भारतवर्ष को ही एक स्थायी आयोजन स्थल के रूप में निर्धारित किया जाए । इससे न सिर्फ इस आयोजन पर आनेवाले खर्च में काफी कमी की जा सकेगी, बल्कि विदेशों से आनेवाले प्रतिनिधियों को उनकी मूलभूमि भारत से जोड़े रखने में भी मदद मिलेगी।
दूसरा महत्त्वपूर्ण विषय हिंदी के प्रचार-प्रसार में लगे विभिन्न सरकारी संस्थानों एवं इसके लिए बनाई गई वर्षों पुरानी नीतियों से संबंधित है। देश में प्रचार-प्रसार की मुख्य जिम्मेदारी राजभाषा विभाग निभाता है। यह विभाग जाने क्या सोचकर गृह मंत्रालय के अंतर्गत रखा गया है। इस विभाग द्वारा सभी मंत्रालयों में राजभाषा समितियों का सलाहकार समितियों का गठन किया जाता है। हर साल इन समितियों की बैठकों पर करोड़ों रुपए फूंककर भी हिंदी कछुए की ही चाल चलती दिखाई दे रही है। क्योंकि हिंदी के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी संभालनेवाला शीर्ष नेतृत्व आजतक अंग्रेजी में सोचने की मानसिकता से उबर नहीं पाया है। राजभाषा विभाग के अलावा केंद्रीय हिंदी संस्थान, शब्दावली आयोग एवं अनुवाद के लिए बनी विभिन्न संस्थाओं के जरिए भी हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए अलग-अलग ऊर्जा एवं धन खर्च किया जा रहा है। लेकिन इनमें से कोई भी नई तकनीक और आसान हिंदी को लेकर नई नीति बनाता दिखाई नहीं देता । गैरसरकारी क्षेत्र किसी भी कम्प्यूटर पर पढ़े जा सकनेवाले यूनीकोड का इस्तेमाल धड़ल्ले से कर रहा है । भारतीय बाजार को कब्जियाने की होड़ में लगी मल्टीनेशनल कंपनियां भी हिंदी के नए संसाधनों का उपयोग करने में पीछे नहीं हैं। लेकिन हमारी सरकारी संस्थाएं आज भी हिंदी के विकास को क, ख और ग क्षेत्रों में बांटकर प्रतिशत से तौलती दिखाई दे रही हैं।
विश्व हिंदी सम्मेलन की सार्थकता तो तब है, जब हिंदी को इस तकनीकी नापतौल से बाहर निकालकर नए संसाधनों के अनुकूल नई नीतियां बनाई जाएं। विश्व हिंदी सम्मेलन में सूचना प्रौद्योगिकी – देवनागरी लिपि और हिंदी की सामर्थ्य सत्र की अध्यक्षता करनेवाले कवि-साहित्यकार अशोक चक्रधर द्वारा उठाए गए द्विभाषी की-बोर्डों के निर्माण के सवाल पर सरकार को तुरंत ध्यान क्यों नहीं देना चाहिए ? अथवा विदेशों में जाकर हिंदी का परचम लहरानेवाले विद्वानों को यह आवाज क्यों नहीं उठानी चाहिए कि राजभाषा विभाग को गृहमंत्रालय के हवालात से बाहर निकालकर, इसके साथ-साथ केंद्रीय हिंदी संस्थान, शब्दावली आयोग एवं विश्व हिंदी सम्मेलन को भी मानव संसाधन विकास मंत्रालय या संस्कृति मंत्रालय जैसे किसी मंत्रालय के हवाले कर हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए नए सिरे से नीतियां गढ़ी जाएं ?

– ओमप्रकाश तिवारी
07, जिप्सी बिल्डिंग, मेन स्ट्रीट, हीरानंदानी गार्डेन्स, पवई, मुंबई-76
मोबाइल – 09869649598

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